शनिवार, 15 दिसंबर 2012

kuch to kahna tha.

कुछतो  कहना था ,कुछ तो  कहना है ,
सुनाते हुए बीत जायेंगी सदिया ,
 ना ख़तम हो पायेंगे तुम्हे बताने के किस्से,
बहुत सारी शिकायत,कुछ हँसी ,कुछ इनायत,
कुछ यादो के किस्से,कुछ बातो के हिस्से,
कुछ अनजाने जज्बूतो के हिस्से l
शब्दों का गणित खो बैठा वजूद,
अल्फाजो की निगाह चुप से रही ,
 खामोशी गुनगुनाने लगी।
पल वे आये और चले भी गए,
यादे ,लम्हे,खुशबू ,बाते ,
हसी की खनक,निगाहों की झनक् ,
तैरती रही हवाओं मे ,
पकड़ न पाए अलफ़ाज़
हम फिर गिनने लगे
यह तो कहना था ,वह तो कहना था।


अमृता



मंगलवार, 4 दिसंबर 2012


उसकी खामोशी ने दहला िदया मुझको अपने वजूद से रुसवा िकया मुझको
, खुदगर्ज वह इतना होगा, यकीन न था, क्यू ऐसे ही तनहाई से इश्क था उसको,
,गम जो कुछ तो बाँटा होता , हमको भी तो समझा होता,
सन्नाहट ने उसकी, पराया कर दिया मुझको, काश कुछ भरम में हम भी जी लेत
े,मय नहीं उसकी जागीर,कुछ हम भी पी लेते।
Amrita........

kavita

युग युग से समर्पित, 
इक िमसाल ,इक हूक, मतलब केउस पार,,
युग को समरिपत ़
िवशवास ़के 
आवाहन का मूक संदेश,
कुछ तो था सुदामा,तेरी मौन व्यथा के उस पार
,कृषन न होता तो सुदामा भी न होता,
चला जाता एक वादा परछाइयों के उस पार,
अच्छी है कहानी़़़ ं------
युग बदला,बदले िवशवास,
बदलने लगा आसमान, आसपास,
वहुत कठिन हैं कृष्ऩ ,आज,
कोई वादा आज कर न पायेगा,
मजबूरी है,वह कृष्ऩ है,यह व्यथा,
तू समझ न पायेगा,
वह नहीं सुन पायेगा ,
आवाजों के दौर में इक मूक पुकार,
सुदामा अपने होने का ,
कब तक मूल्य चुकायेगा।
बह रहा समय का पृभाव।
बह रहा समय का पृभाव।।.





अमृता 

शनिवार, 1 दिसंबर 2012

kavita

तूफा के पहले की खामोशी है ये , 
या तूफा के बाद का बयार ,
साहिल की मंशा क्या है 
माझी की रुखसत क्यू है
किनारों की कोई नहीं मंजिल ,
कभी नहीं मिलता सूकू ,
टकराहट से लहरो की 
सूख गये उनके जज़्बात ,
पर दो पल गुरूर उनको भी होने दो 
गुस्सा समेटा है उनने लहरों का ,कि 
लौटफिर के घर खोजती लहरे ,
अपने साथी तक आएँगी 
और सफ़र की अपने ,किस्से कहानी सुनाएंगी 
होगा मिलन बिछुड़े लम्हों का ,
कुछ दुःख, कुछ सुख ,कुछ तडपन का .
मंजिल की कुछ बात  कहेंगी ,
कुछ अपने जज़्बात कहेंगी ,
यू ही कहानी चलती रहेगी ,
किनारों की नदी समंदर बनती रहेगी !

अमृता 

शनिवार, 22 सितंबर 2012

समय, होने दे मुझे,
अस्तित्व के िपघलते भरम का अहसास,
गेंद की माफिक हवा में,
गाते रहते थे हर रोज़
गीत के अंदाज की हरकत समझ,
शब्दों के माया जाल को,
बह निकलता जा रहा, मुटठी की रेत की मानिंद ,
वजूद के अहसास का सलोना सरूप ।
व्यर्थ सोचाविचारी में निकल गया यह भी समय,
रात की चादर अोढने लगा है घना सवेरा ,
झूमने लगा सपनों के स्पंदन का अालंगन,
कि, फिर अाज मिलेंगे शब्दों के उस पार,
जहाँ कोई मतलब पार पड़ता नहीं,
ये सनसनाती रात की व्याकुल हवा,
जोहती है रास्ता भोर की नाजुक ललक  का,
वह जानती है,
मेरे वजूद की तलाश,
फिर पूछेगी एक सवाल,
और सहलाएगी
बरसात के बादल की हवा के मानिंद ,
मेरे अहं के अधिकार को,
फिर एक सफ़र, फिर एक किरण,
फिर एक अाहट भोर की ।
फिर एक अाहट भोर की।


भारती
21/9/2012

शुक्रवार, 14 सितंबर 2012

व्यर्थ  है, कुछ बोलना, शब्दों को यूँ तौलना ,
चुन चुन कर घुन लगे अहसासों ,
को मरोड़ना,
बार बार फिर एक कोशिश, समझा पाऊं उसे,दिला पाऊॅ यकीं 
अस्तित्व विहीन हो चला, मेरे दर्प का अहसास,जब 
बात चली अपने होने की,
ढूँढने लगा खुद के,
दर्पण में ,
तो उसका चेहरा ही क्यूँ कर अा जाता सामने,
हज़ार बार खुदको झिडकने के बाद,
बारंबार अहसासों पर बिगड़ने के बाद,
अाज मैने जिद छोड दी,
अपने को पाने की मेरी हर कोशिश 
उस अहसास की नीयत छोड़ दी।
कैसे दिलाऊं उसको यकीं ,कैसे भरूँ अहसास वो,
मेरा अधूरे अकस को पूरा करने को आजा ।
मैं जी न पाया अाज तक,
शह पी न पाया आज तक।
मेरा अस्तित्व लौटा दे मुझे,
मेरा मुझमें होने के लिये आजा़ ,
मेरे बीते हुए वक़्त के रहनुमा,
मेरे रहते हुए लमहों को सजाने आजा।
व्यर्थ है,कुछ बोलना, शब्दों को यूँ तौलना
खो गए है, शब्द जो,
उनको जगाने आज अाजा।
आज आजा ।


भारती।

सोमवार, 3 सितंबर 2012


उज्जवल ,स्वर्णिम,मुक्त्त,किरण
जब जीवन की अंगडाई लेती है
नन्ही किरणों के धवल पंख,
जब रंगों के घेरे मैं बहते है,
मैं भी कुछ रंग चुराती हूँ,फिर,
जीवनपथ पर-
खो जाती हूँ।?
बार-बार
ये रंग मुझे -
मेरी परिभाषा कहते हैं ,अपने से लगने लगते हैं.

भारती 

बुधवार, 15 अगस्त 2012

Kavita

मह। नगर की दौड़धूप में ,
पकते ज। रहे हैं संवेदन।अों से परे,
मस्तिष्क की ब।रीकियों में लगे,
य। कि ंपेट की तौलमौल से ढ़के,
हम हो ज।ते हैं अपने होने से परे,
करते रहते हैं शब्दों से खिलव।ड़,
कि कह प।एें हम भी कुछ,
जो घुट। ज। रह। है,शब्दों के विल।स की तह में,
अौर दब। रह। है अपनेपन की अ।हट को,
संवेदन।अों से िनरंतर खिलव।ड़,
अब कोई ड़।क। नहीं ड।लत। प्यार से अपनेपन क।,
म।नत। नहीं मन भी अब,
संवेदन।अों पर अब किसी क। अधिक।र नहीं,
झूठी लगती हैं,जब कोई जग।त। है ,गैर होकर
अपने पन क। अहस।स,
भड़क उठत। है मन,
कि फिर किस संवेदन। के पट।क्षेत्र की अ।हट है ये।

भ।रती,
13/8/2012





मंगलवार, 10 जनवरी 2012

vichaaro kaa makaa

कुछ दिमाग
की मेकनिस्म,
 कुछ शब्दों का खिलवाड़
रख दिए इस तरह से,
 जैसे रखता है एक बच्चा, बड़े सोच समाज के अपने मिटटी के घर की इंटो को
और बना दिया कोई सुन्दर सा संवाद . फिर खुश होना अपने खेलने के अहसास पर ,फिर जीत हुई आज शब्दों की, और एक इमारत खडी हुई विचारों की,
पर शब्दों के पंख कहा जो उड़ कर बैठते . खिड़की पर उन अहसासों की ,जो ता उम्र ना खोज
पाए शब्द अपने लिए,
क्योकि विचारो की उत्तजना ने बंद कर दिया,
 भावो की खिड़की और दरवाजे.फिर विजय हुई मश्तिषक की और दिल धरा का धरा रह गया.
कोई बोला सोचना छोड़
दे और समज्हना
सीख जा, क्योकि दिल के दरवाजे बंद है, आत्मा की चिड़िया उदास है, मगर
तू खुश रहना. विचारों का machanism  तो तेरे पास है. .
बना देना एक  और मका. घर ढूंढ ही लेगा जो आस पास है.

-----भारती





phir wohi baat

फिर अहसास वोही , फिर ख़याल वोही,
कुछ तो
उम्र का ऐतबार है. कुछ तो जुबा का सवाल है,
पर नाजुक से खयालो को किसका इंतज़ार है.
तबियत होती है जुदा इंसान बनते बनते
पर कब निकल जाए हसरतो का परिंदा यह अहसास नहीं,
वक़्त के मानिंद नहीं की हम बदल दे हर पल अपने होने की धुरी को
क्योकि
 कुछ  वो
 भी है जो निकल जाने का ऐतबार नहीं
कैसे पकड़ के रखे वो जो बंद मुट्ठी
 से निकलता है रेत की
 तरह, जहा उसके पहलू
 मे  होने का ऐतबार नहीं.
वो एक अहसास है निकल जाएगा फिजा के साथ,
अभी तो उसकी खुशबू
की नब्ज़ का अहसास नहीं
.ऐ पल ठहरजा कुछ इस तरह ,जो मेरे जीने का भरम तो हो लेने दे मुझे.
 अब तक  था ये जख्म यह भी विश्वास नहीं.

---भारती