गुरुवार, 20 जून 2013

बुतपरस्ती हो गयी बहुत ,
पत्थर को पूजते रहे,
ख्वाब बुनते रहे
,राह चुनते रहे l
वक़्त की तकदीर है
बह गया लम्हा दर लम्हा
 और  हम रेत  की मानिंद
बनते  गए ,ढहते  गएl








बुधवार, 19 जून 2013

तुम्हारी हूक, तुम्हारा दर्द ,
तुम्हारी उस वक़्त से आगे चले जाने की  पीडा,
 देखना लोगो के द्वारा एक निशब्द आश्चर्य से.
या की खामोशी भरे डर से,
समझ  ना पायंगे वो शब्दों का क्लेश तुम्हारा ,
रहते हो   दिन मे विकारहीन कर्मठ यॊधा से ,
फिर थक जाते हो रात तक।

 अपने शिखर की ऊचाइयॊ पर .,
क्यों  अकेलेपन से घबरा रहे हो,
तुमने ही तो चुना था   ,
 भोचक्के लोगो की जमात को, अपने दर्द से पराया करना ....
और बुद्ध फिर सोचने लगा,तुम्हारे अन्दर का,
अकेले निकल आया है जो  बहुत दूर,

चल पड़ते हो फिर अगली सुबह ,निबटाना है फिर एक और हूक को,
जो  तुम्हारे कद की परछाई से बड़ी है ,रोज की ही तरह ,
तुम्हारी आहटो  से बढती कुछ सन्नाटों की हलचल,
फिर एक पैबंद और लगाना  होगा  तुम्हॆ किसी की हसरतों पर आज .

अमृता ---------------