मह। नगर की दौड़धूप में ,
पकते ज। रहे हैं संवेदन।अों से परे,
मस्तिष्क की ब।रीकियों में लगे,
य। कि ंपेट की तौलमौल से ढ़के,
हम हो ज।ते हैं अपने होने से परे,
करते रहते हैं शब्दों से खिलव।ड़,
कि कह प।एें हम भी कुछ,
जो घुट। ज। रह। है,शब्दों के विल।स की तह में,
अौर दब। रह। है अपनेपन की अ।हट को,
संवेदन।अों से िनरंतर खिलव।ड़,
अब कोई ड़।क। नहीं ड।लत। प्यार से अपनेपन क।,
म।नत। नहीं मन भी अब,
संवेदन।अों पर अब किसी क। अधिक।र नहीं,
झूठी लगती हैं,जब कोई जग।त। है ,गैर होकर
अपने पन क। अहस।स,
भड़क उठत। है मन,
कि फिर किस संवेदन। के पट।क्षेत्र की अ।हट है ये।
भ।रती,
13/8/2012
पकते ज। रहे हैं संवेदन।अों से परे,
मस्तिष्क की ब।रीकियों में लगे,
य। कि ंपेट की तौलमौल से ढ़के,
हम हो ज।ते हैं अपने होने से परे,
करते रहते हैं शब्दों से खिलव।ड़,
कि कह प।एें हम भी कुछ,
जो घुट। ज। रह। है,शब्दों के विल।स की तह में,
अौर दब। रह। है अपनेपन की अ।हट को,
संवेदन।अों से िनरंतर खिलव।ड़,
अब कोई ड़।क। नहीं ड।लत। प्यार से अपनेपन क।,
म।नत। नहीं मन भी अब,
संवेदन।अों पर अब किसी क। अधिक।र नहीं,
झूठी लगती हैं,जब कोई जग।त। है ,गैर होकर
अपने पन क। अहस।स,
भड़क उठत। है मन,
कि फिर किस संवेदन। के पट।क्षेत्र की अ।हट है ये।
भ।रती,
13/8/2012