समय, होने दे मुझे,
अस्तित्व के िपघलते भरम का अहसास,
गेंद की माफिक हवा में,
गाते रहते थे हर रोज़
गीत के अंदाज की हरकत समझ,
शब्दों के माया जाल को,
बह निकलता जा रहा, मुटठी की रेत की मानिंद ,
वजूद के अहसास का सलोना सरूप ।
व्यर्थ सोचाविचारी में निकल गया यह भी समय,
रात की चादर अोढने लगा है घना सवेरा ,
झूमने लगा सपनों के स्पंदन का अालंगन,
कि, फिर अाज मिलेंगे शब्दों के उस पार,
जहाँ कोई मतलब पार पड़ता नहीं,
ये सनसनाती रात की व्याकुल हवा,
जोहती है रास्ता भोर की नाजुक ललक का,
वह जानती है,
मेरे वजूद की तलाश,
फिर पूछेगी एक सवाल,
और सहलाएगी
बरसात के बादल की हवा के मानिंद ,
मेरे अहं के अधिकार को,
फिर एक सफ़र, फिर एक किरण,
फिर एक अाहट भोर की ।
फिर एक अाहट भोर की।
भारती
21/9/2012