शुक्रवार, 10 जनवरी 2014


    ।।।।।।इक मुट्ठी आसमान।।।।।।।

हर कोई चाहता है इक मुट्ठी  आसमान,
सीने मेँ  छुपाऐ सारा ज़हान  ,
हर कोई ढूँढ़ता है इक मुट्ठी आसमान।
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तिनका तिनका रेत उठाता,  
बंजारा इक राह बनाता।
 नीङ बनाता , रात जगाता  ,
लङ आँधी तूँफा   , मौज मनाता।
 उठ राह बनाकर राह दिखाता,
बंजारों में फिर खो जाता ,
तिनकों पर दिखता है फिर सारा आसमान।

हर कोई चाहता है इक मुट्ठी  आसमान,
सीने मेँ  छुपाऐ सारा ज़हान  ,
हर कोई ढूँढ़ता है इक मुट्ठी आसमान।

अमृता भारती ।


मैँ विरह गीत सुनाऊँ कैसे  ,
तू दूर कहीँ जाता ही नहीँ ,
इन यादो  की आबादी मेँ,
सन्नाटा आता ही नहीँ।
 मैँ विरह गीत सुनाऊँ कैसे  ,
तू दूर कहीँ जाता ही नहीँ ।

 बिस्तर -तकिये, भाँङे- बर्तन,  
सीढी- बैठक, चौखट- ओटक।
  गली -मौहल्ले, बाग -बगीचे ,
बालकनी   की छत के नीचे,
वो नोच- खोस, वो प्यार -व्यार,
 वो जीत -वीत, वो हार- वार।
यूँ ही आता तू बार -बार  ,
यूँ ही आता तू बार बार।

  मैँ विरह गीत सुनाऊँ कैसे  ,
तू दूर कहीँ जाता ही नहीँ ,
इन यादो  की आबादी मेँ,
सन्नाटा आता ही नहीँ।
 मैँ विरह गीत सुनाऊँ कैसे  ,
तू दूर कहीँ जाता ही नहीँ ।।

Amrita