मंगलवार, 10 जनवरी 2012

phir wohi baat

फिर अहसास वोही , फिर ख़याल वोही,
कुछ तो
उम्र का ऐतबार है. कुछ तो जुबा का सवाल है,
पर नाजुक से खयालो को किसका इंतज़ार है.
तबियत होती है जुदा इंसान बनते बनते
पर कब निकल जाए हसरतो का परिंदा यह अहसास नहीं,
वक़्त के मानिंद नहीं की हम बदल दे हर पल अपने होने की धुरी को
क्योकि
 कुछ  वो
 भी है जो निकल जाने का ऐतबार नहीं
कैसे पकड़ के रखे वो जो बंद मुट्ठी
 से निकलता है रेत की
 तरह, जहा उसके पहलू
 मे  होने का ऐतबार नहीं.
वो एक अहसास है निकल जाएगा फिजा के साथ,
अभी तो उसकी खुशबू
की नब्ज़ का अहसास नहीं
.ऐ पल ठहरजा कुछ इस तरह ,जो मेरे जीने का भरम तो हो लेने दे मुझे.
 अब तक  था ये जख्म यह भी विश्वास नहीं.

---भारती










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